तुलसी के साहित्य में नारी संवेदना
डॉ.गोमा देवी शर्मा (अधिकारी)
मणिपुर
गोस्वामी तुलसीदास 15वीं शताब्दी के एक महान रामभक्त कवि
थे। उनका समय विभिन्न राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक विषमताओं से घिरा हुआ था। सामाजिक
स्थिति सोचनीय थी। भारतीय समाज निरंतर विश्रृंलित होता जा रहा था। आक्रांताओं के
बार-बार आक्रमण, मुग़लों का शासन व्यवस्था पर कब्जा ज़माना, भारतीय जनता का निरंतर
पराधीनता का बेड़ियों मे जकड़ते जाना, आततायियों से नारी वर्ग को बचाने की बड़ी
चुनौति, मुगलों की विलासिता के लिए हर्म्य संस्कृति का जन्म, हिंदू किशोरियों का
अपहरण करके नारकीय जीवन जीने को बाध्य करना, जैसी हजारों चुनैतियाँ भारतीय समाज
झेल रहा था।
तुलसी की रचनाओं में नारी संबंधी विविध विचारों के
दर्शन होते हैं। वे महान लोक साधक थे। उनकी लोक साधना में समाज का नारी वर्ग भी
उतना ही सहभागी है जितना पुरुष वर्ग। वे इस बात पर विश्वास रखते थे कि वही कविता,
वही सुयश और वही मानव सम्पदा उत्तम है, जो गंगा के समान पवित्र हो। सबका समान हित
करने वाली हो। उन्होंने नारी के प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों पर आधारित स्वरूप को
स्वीकार किया। पतिव्रत धर्म से परिपूरित हृदय, त्याग, सेवा, ममता, कर्त्तव्यपरायण,
शील तथा मर्यादा से परिपूर्ण मानवी चरित्र के रूप में तुलसी ने नारी को देखा है। तुलसी की निम्न
चौपाई में स्त्री और पुरुष की छवि को बराबर आँकने की प्रवृत्ति ही झलकती है-
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई।
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि पर प्रिय सोई।। 1
गोस्वामी
तुलसीदास के साहित्य में नारी संवेदना को परखने के लिए यहाँ उनके द्वारा रचित
महाकाव्य रामचरितमानस को आधार बनाया गया है। इस महान ग्रंथ रूपी मानस पर डूबकी
लगाकर अलोकन करने पर हमें नारी पात्रों की विभिन्न श्रेणियाँ दिखाई देती हैं, जिनकी यहाँ
चर्चा की जाएगी-
1.सत्पात्र
यदि रामचरितमानस की आरंभिक पंक्तियाँ देखी जाए, तो यह साफ हो जाता है कि तुलसीदास
के इस महाकाव्य में नारी शक्ति को वंदनीय माना है। मंगलाचरण के अंतर्गत सरस्वती, पार्वती, सीता के साथ-साथ गणेश, गुरू आदि की वंदना से
पता चलता है कि तुलसी के हृदय में मातृशक्ति के लिए अपार श्रद्धा का भाव विद्यमान था।
तुलसी ने निरंतर विश्रृंखलित होते जा रहे भारतीय समाज को पुन: आदर्शों से अनुप्राणित
करने का बीड़ा उठाया है। इसके लिए उन्होंने ऐसी पात्रों का गठन किया गया है, जो समाज
के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं। कौशल्या, सीता, सुमित्रा, सुनयना,
उर्मिला, अनुसूया, तारा, मंदोदरी, त्रिजटा, आदि सत्कोटि की पात्र हैं। ये सभी अपनी
संतान को उच्च संस्कार प्रदान करने वाली, ममतामयी, पतिपरायणा,
धर्म-संस्कार-संस्कृति की रक्षा करने वाली, स्वाबलंबी, कष्टों का डटकर मुकाबला
करने वाली, समाज में उच्चादर्श स्थापित करने वाली महिमामयी नारी के रूप में पाठकों
के सामने प्रस्तुत होती है, जिनका आदर्श आज भी समाज में कायम है।
2.
अस्थिर पात्र
इस श्रेणी की पात्रों मे राजा दशरथ की मझली पत्नी रानी कैकेयी आती है।
उसका चरित्र दृढ नहीं है। वह परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करती है। उसके चरित्र
में ईर्ष्या, द्वेष, निष्ठुरता और स्वार्थ भावना परिस्थितियों के कारण उद्भूत हुई
है। इसी के वशीभूत होकर वह राम को वन और भरत के लिए राज सिंहासन का वरदान माँगती
है।
कैकेयी के चरित्र का वीर और उदात्त पक्ष भी है। उसमें वीरता
कूट-कूटकर भरी हुई है। युद्ध में राजा दशरथ के रथ का धुरा टूट जाता है। उस समय
कैकेयी ने अपने हाथ का धुरा बनाकर रथ को टूटने से बचाया। राजा दशरथ युद्ध करते
रहे। कैकेयी में एक राजरानी की गरिमा है। सौतेले बेटों के प्रति उसके मन में स्नेह
नहीं है, यह कहना समीचीन नहीं होगा। मंथरा से राम के अभिषेक का समाचार मिलने पर उसके
विशाल हृदय के उद्गार देखिए:
सुदिनु सुमंगलदायकु सोई । तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।
जेठ
स्वामि सेवक लघु भाई ।यह दिनकर कुल रीति सुहाई ।। 2
कैकेयी ने गलत मार्ग अपनाया, उसकी गलती के कारण राजा दशरथ के
प्राण चले गए। सभी रानियों के साथ उसे भी वैधव्य सहना पड़ा। अपने बेटे भरत ने उसका
तिरस्कार किया। वह मौन हो गई और अंत तक ग्लानि और पश्चाताप की अग्नि में जलकर अपनी
करनी का प्रायश्चित करती रही। केवल राम–वन–गमन के प्रसंग को छोड़कर कैकेयी का शेष चरित्र उत्कृष्ट है।
3.असत पात्र
रामचरित मानस में सूर्पणखा और मंथरा की गणना असत्पात्रों
में की जाती है। मंथरा एक कुटिल पात्र है, जिसके कारण एक राज परिवार विपत्ति के
भँवर में पड़ जाता है। राक्षसराज रावण की भगिनी सूर्पणखा निर्लज्ज, कामोन्मत्त और
उच्छृंखल पात्र है, जो सारी मर्यादा को लाँघने में आमादा है, इसीलिए उसे अपनी नाक
कटवानी पड़ी।
4. भक्त पात्र
तुलसीदास
ने अपने समय की सामाजिक सोच को चुनौति देते हुए नारी को मोक्ष की अधिकारिणी के रूप
में चित्रित किया है। तुलसी ने नर, नारी, जड़, चेतन सबको ईश्वर भक्ति का अधिकारी
बताया है-
राम भगति रत नर अरू नारी। सकल परम गति के अधिकारी।। 3
इस प्रकार तुलसी अपने समाज की मान्यता से कई कोश आगे बढ़कर
नारी के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। तपोशिरोमणि स्वयंप्रभा और प्रभु चरणों में
समर्पित भक्तिन शबरी नारी भक्तों का प्रतिनिधित्व करने वाली भक्त पात्र हैं। ये
नारी किसी पुरुष पर आश्रित न होकर स्वावलंबी, स्वाभिमानी, तपोसाधना से उद्दीप्त,
ममतामयी नारी पात्र के रूप में पाठकों के सामने आती हैं। पति परित्यक्ता अहिल्या
रामभक्ति के प्रताप से बड़भागिनी बनकर भावविह्वल दिखाई पड़ती है।
5.राक्षसी पात्र
रामचरित
मानस में राक्षसी नारी पात्रों का भी सृजन हुआ है। सुरसा, सिंहिका, ताड़का मायावी
राक्षसी पात्रों के रूप में पाठकों के सामने आती हैं, जो समाज के एक वर्ग का
प्रतिनिधित्व करती है।
आक्षेप
यद्यपि तुलसी के अधिकांश आलोचक यह मानकर चलते हैं कि तुलसी
की नारी संबंधी भावना सामंतवाद से प्रेरित हैं, वे नारी विरोधी हैं। इसके लिए
उन्होंने अपना सबसे बड़ा हथियार निम्नलिखित चौपाई को बनाया है-
प्रभु भल किन्ह
मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।
ढोल गँवार सूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।। 4
इस
चौपाई में ताड़ना या ताड़न शब्द इतना आपत्तिजनक है कि इसने तुलसीदास
को ही नारी विरोधी करार दे दिया।
यदि
हिंदी में देखा जाए तो ताड़ना का अर्थ कठोर दंड देना होता है। इस अर्थ के आधार पर
इस पंक्ति का अर्थ – ढोल गँवार, शूद्र, पशु और नारी कठोर दंड के अधिकारी हैं।
अर्थ का व्यापक रूप में अनर्थ करने से पहले हमें इस बात पर
भी ध्यान देना आवश्यक है कि तुलसी ने रामचरित मानस हिंदी में नहीं बल्कि
अवधी भाषा में लिखा है। दरअसल ताड़ना एक
अवधी शब्द है, जिसका अर्थ– पहचानना, परखना या देखरेख करना होता है। बुंदेलखंड से तुलसीदास का प्रगाढ़ संबंध रहा है। मानस में बुंदेली शब्दों की भरमार पाई जाती है। इस आधार पर बुन्देली भाषा में ताड़ना का अर्थ विशेष ध्यान देना होता है। इस आधार पर इस चौपाई का अर्थ इस प्रकार बनता है–
राम के द्वारा मान भंग किए जाने पर समुद्र उनके सामने प्रकट होकर नतस्तक खड़े हो जाते हैं और उपरोक्त उद्गार कहते हैं।
भावार्थ : प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु जीवों की
मर्यादा भी आपकी ही बनाई हुई है। उनको शिक्षा देना या विशेष ध्यान देने में आपकी
बड़ी भूमिका बनती है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – ये सभी शिक्षा के अधिकारी
हैं। तुलसीदासजी के कहने का मंतव्य यह बनता है-
अगर हम ढोल बजाते वक्त ताल पर विशेष
ध्यान नहीं देंगे तो उससे कर्कश ध्वनि निकलेगी। ढोल का पारखी ही उसको साधकर सुमधुर
आवाज में बजा सकता है। इसी तरह गँवार से आशय उन लोगों से है जो अल्प ज्ञानी हैं। उनकी
प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उनसे कोई कार्य साधा नहीं जा सकता।
शुद्र से आशय किसी
जाति से नहीं बल्कि सेवक वर्ग से है। सेवक वर्ग उस समय ज्ञान और शिक्षा में पिछड़ा
वर्ग होता था, इसलिए उन पर विशेष ध्यान देने की बात कही गई है।
पशुओं को भी परखना
या विशेष ध्यान देना पड़ता है। यदि ध्यान न दें तो वे नुकसान पहुँचा सकते हैं।
इसी तरह नारी (जगत–जननी, आदि–शक्ति, मातृ–शक्ति) के परिपेक्ष्य में भी यही अर्थ है कि जब
तक हम नारी के स्वभाव, शक्ति, मातामयी रूप को नहीं पहचानेंगे, उसके साथ जीवन का
निर्वाह नहीं हो सकता।
रामचरित मानस में ऐसी कई पंक्तियाँ प्राप्त
होती है। जो आक्षेपों का केंद्र बनी हुई हैं।
लंका कांड से कुछ पंक्तियाँ उद्दृत हैं। लक्ष्मण
मूर्छा से विक्षिप्त राम कहते हैं-
सुत
वित नारी भवन परिवारा।
होहिँ जाई जगहिँ बारहिँ बारा ।। 5
भावार्थ-
संतान, धन, पत्नी, घर, परिवार ये दुनिया में बार-बार मिल सकते हैं, पर लक्ष्मण
जैसा सहोदर भाई दुबारा नहीं मिलेगा।
जैहौं
अवध कवन मुँहुलाइ, नारी हेतु प्रिय भाई
गँवाइ।
बरु
अपजस सहतेउँ जग माहि, नारी हानि विशेष क्षति नाहिँ। 6
मैं किस मुँह को लेकर अयोध्या जाउँगा। लोग
कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपने प्रिय भाई को गँवाया है। मैं दुनिया में
बदनामी सहन कर लेता पर भाई का बिछोह सहन नहीं कर सकता। पत्नी की क्षति कोई विशेष
क्षति नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि पत्नी तो दूसरी भी लाई जा सकती है पर भाई
दूसरा नहीं लाया जा सकता।
इन पंक्तियों
पर गौर फरमाया जाए तो ये आपत्तिजनक जरूर हैं। तुलसी को नारी विरोधी होने का प्रमाण
ये जरूर देती है। लेकिन एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि रामचरितमानस के रूप में
हम आज का नहीं बल्कि 15वीं शताब्दी में लिखित साहित्य पढ़ रहे हैं। साहित्य समाज
का दर्पण होता है। इसमें किसी कालखंड की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आर्थिक,
सांस्कृतिक परिस्थितियों की छाप दिखाई देती है। यदि यह बात सबको स्वीकार्य है, तो
तुलसी ने अपने पात्र चाहे समुद्र हो या स्वयं राम से ऐसी बात कहलवायी है, हमें
स्वीकार करना ही होगा कि उन्होंने अपने युगीन परिस्थितियों, सामाजिक सोच के आधार
पर ही कहलवाया है। एक ओर भारत में मुगलों का राज कायम हो रहा था। धर्मांतरण का
विकराल रूप, धार्मिक दंगे निरंतर देश की अस्मिता पर हमले कर रहे थे। सामाज में
नारी की स्थिति सोचनीय थी। उसे मानवी का दर्जा प्राप्त नहीं था। बहुपत्नीवाद का
बोलबाला था। दूसरी ओर मुगलों के दरबार में पनपती हर्म्य संस्कृति हिंदू युवती,
बालाएँ और नारियों के लिए अभिशाप बनकर उभर रही थी। उनका आएदिन अपहरण करके शासकों
के हर्म्य उन्हें नारकीय जीवन जीने को बाध्य किया जाने लगा। इस समय समाज आतताइयों
से अपनी नारी संपदा को बचाने की चुनौतियों से भी गुजर रहा था। तुलसीदास के हरेक
कथनों को 21वीं शताब्दी के चस्में से देखना न्यायसंगत नहीं होगा। उन्होंने अपने
पात्रों के माध्यम से अपनी नहीं बल्कि अपने जमाने की सामाजिक सोच को उजागर किया
है।
इस संदर्भ मे एक
और बात का जिक्र किया जा सकता है कि वर्तमान समाज भी नारी के प्रति विशेष सम्मान
नहीं रखता। यदि आज का कवि या लेखक निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड जैसे विषयवस्तु पर
कोई रचना लिखे जो भविष्य में काफी चर्चित हो। तो आज से छ: सात सौ साल बाद
इसका मूल्यांकन ऐसे करना समीचीन नहीं होगा, कि 21वीं सदी का अमुक कवि / लेखक
घोर नारी विरोधी है। नारी की बलात्कार और बर्बर हत्या में विश्वास रखता है।
ऐसे उद्गार शोभनीय होंगे क्या? यदि नहीं, तो तुलसी के संबंध में भी नारी विरोधी
होने की यह बात लागू करना तर्क संगत नहीं होगा।
यह
बात भी नहीं भूलनी चाहिए मानस में वर्णित नारी पात्र, एक धोबिन को छोड़कर कोई भी
अपने पतियों या पुरुषों से से प्रताड़ित नहीं है, बल्कि सम्मानित हैं। रावण ने भी
बिना अनुमति के सीता को छुआ तक नहीं। वह आज के बलात्कारियों से लाख गुणा सम्माननीय
है। अयोध्या के संदर्भ में देखा जाए तो अपनी रानी के गलत चाल चलने पर राजा दशरथ का
हृदय जरूर टूटा पर उन्होंने अपनी कुल की मर्यादा रखते हुए कैकेयी को दिए वचनों को अपने
प्राणों की बलि देकर पूरा किया। पुरुष होने के नाते वे उसे प्रताड़ित कर सकते थे। नारी
सम्मान के दूसरे संदर्भ के तौर पर बाली बध प्रसंग में राम के उदगार हमें नहीं
भूलने चाहिए। मृत्यु के मुँह में पड़े बाली से राम कहते हैं- “तुम
तो मूर्ख और अहंकारी थे ही, यदि अपनी विदूषी पत्नी की बात मानी होती तो यह दिन
देखना नहीं पड़ता।“ इन
प्रसंगों में नारी सम्मान की ही बात साबित होती है।
राम के द्वारा
सीता का त्याग अवश्य ही खटकता है। आज के संदर्भ में यह जायज नहीं है पर एक राजा के
लिए अपने परिवार से बढ़कर अपनी प्रजा होती है। राम इसी मर्यादा से बँधे पात्र का
नाम है। यदि राम को सीता से प्रेम नहीं था तो वे उसे लंका से लाने का उपक्रम क्यों
करते?
सीता त्याग के बाद वे स्वयं एक संयासी की भाँति जीवन क्यों जीते? जहाँ
बहुपत्नीवाद का बोलबाला था, वहाँ एक पत्नीव्रत धर्म का अंगीकार क्यों करते? यदि सीता
धर्ती पर न समाई होती तो इसमें जरूर नारी की अक्षमता और पुरुष दंभ की जीत साबित
होती। सीता का धर्ती में समाना नारी स्वाभिमान, नारी के आत्मसम्मान का परिचायक है,
नारी स्वाधीनता का उद्घोष है। सीता का त्याग पति रूपी राम से ज्यादा नारी को शंका
की नज़रों देखने एवं हीन समझने वाला समाज जिम्मेदार है।
यह बात सत्य है
कि तुलसीदास ने मानस में नारी पात्रों के गठन में कोई कृपणता नहीं दिखाई है। मानस
में उच्चकुलीन, आदिवासी, तपस्विनी, राजसी नारियाँ, त्यागी, स्वाबलंबी, राक्षसी,
कुटिल, निम्नकुलीन नारी पात्रों का गठन करके नारी जीवन की विविध झाँकी प्रस्तुत की
गई है। नारी पात्रों के माध्यम से भी तुलसी ने समन्वय रक्षा की है। तुलसी की नारी
पात्रों को समाज में वंदनीय स्थान मिला है। वे युगों तक भारतीय नारी के आदर्शों को
अनुप्राणित करेंगी, इस बात को नकारा नहीं जा सकता और तुलसी की सोच, विचार, दर्शन
और लोकप्रियता का यही सबसे बड़ा सम्मान व पुरस्कार है।
संदर्भ श्रोत
1. बरवै
रामायण, तुलसीदास ।।7।।
2. अयोध्या काण्ड, श्रीरामचरितमानस,
तुलसीदास, द्वितीय सोपान।।चौपाई 15।।
3. उत्तरकाण्ड, श्रीरामचरितमानस,
तुलसीदास, सप्तम
सोपान श्लोक ।।21।।
4. अरण्यकाण्ड. श्रीरामचरितमानस, तुलसीदास ।।4।।5
5
लंकाकाण्ड, श्रीरामचरितमानस, तुलसीदास श्लोक।। 6।।
6. लंकाकाण्ड, श्रीरामचरितमानस,
तुलसीदास, श्लोक।। 8।।