साहित्य मनुष्य के भाव एवं
विचारों की अभिव्यक्ति का एक प्रमुख एवं प्रबल माध्यम है। किसी भी समाज की पहचान,
उसके पास उपलब्ध उन्नत साहित्य से संभव है। साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है।
साहित्यकार समाज में स्थापित मूल्यों, परंपराओं, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक,
आर्थिक परिस्थितियों को अपनी लेखनी से अभिव्यक्ति देता है। उसका यह कार्य सदियों
तक समाज को प्रतिबिंबित करता है। लेखक सदैव समाज का पक्षधर होता है। उसकी लेखनी
समाज, संस्कृति और देशों को जोड़ती है, जिसमें काल, भूगोल, संस्कृति की बाधा नहीं
होती।
किसी भी राष्ट्र के निर्माण और
उसके उत्थान में अन्य कारकों की तरह उसका साहित्य भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
है। किसी देश को उत्कृष्ट और यथार्थ साहित्य देने का दायित्व भी उसके साहित्यकार
का होता है। विविध जाति, विविध संस्कृति, परंपरा, भाषा से युक्त देश के हरेक
प्रांतों को अपनी लेखनी से जोड़कर देश की अखंडता को मजबूती प्रदान करने के प्रति
भी साहित्यकारों का महत दायित्व बनता है।
भारत के गौरवशाली अतीत का परिचय
देने में सहित्य की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृत की उच्च परंपरा, मध्यकाल
की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था का परिचय इतिहास से कहीं ज्यादा
साहित्य ने दिया है। प्रेमचंद ने भारतीय समाज के जिस यथार्थ रूप का परिचय अपनी
लेखनी के माध्यम से दिया है उसके लिए भारत का इतिहास प्रेमचंद का सदैव ऋणि रहेगा।
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र
विविधताओं का आगार है। भाषिक पृथकता के कारण लंबे समय तक यह राष्ट्र की प्रमुख
धारा से कटकर रहने को मजबुर रहा। यहाँ की बोलियाँ, भाषा, संस्कृति, जाति-उपजाति,
पर्व, उत्सव, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व्यवस्था, अराजकता, समस्याएँ आदि आज के
हिंदी कलमकारों की लेखनी का केंद्र बनने की माँग करते हैं। भारत की स्वाधीनता
प्राप्ति से पहले ही इन प्रांतों में हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम शुरु हुआ था
पर यथेष्ट मात्रा में पूर्वोत्तर आधारित हिंदी साहित्य का निर्माण अभी तक नहीं हुआ
है।
पूर्वोत्तर राज्य प्रचुर संसाधन एवं अलौकिक प्राकृतिक वैभव की
अनूठी छटा से लबरेज हैं। वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत में आठ राज्य शामिल हैं – अरुणाचल
प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम। इन आठ राज्यों के विकास के लिए सन् १९७१
में केन्द्रीय संस्था के रूप में पूर्वोत्तर परिषद के गठन के बाद से भारत सरकार ने
इस क्षेत्र में हिंदी की प्रगति के लिए प्रभावी योजना बनाना आरम्भ किया।
पूर्वोत्तर भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति प्रेम में अप्रत्याशित रूप से
वृद्धि हुई है। इन राज्यों में सेना, सुरक्षा से
जुड़े हुए जवान, व्यापार के लिए हिन्दी भाषी क्षेत्रों से
जाकर बस जाने वाले व्यापारी, पूर्वी उत्तर
प्रदेश और बिहार से काम के सिलसिले में इन राज्यों में आए मजदूरों के कारण यहाँ
हिंदी भाषा के प्रसार की शुरुआत को नकारा नहीं जा सकता। आजादी के बाद स्कूल, कॉलेज
तथा विश्वविद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन की व्यवस्था से इन प्रांतों में हिंदी
मोह का भाव विकसित हुआ है।
वर्तमान में सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास के कारण पूर्वोत्तर
भारत में हिंदी समझने एवं जानने वाले तथा बोलने वाले लोगों की संख्या पर्याप्त है। हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता, हिंदी
समाचार चैनलों की व्यापकता, हिंदी टेलिविजन के धारावाहिक आदि से इनराज्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार खूब हुआ है।
समय -समय पर यहाँ हिंदी के मनिषियों ने इसके प्रचार-प्रसार के लिए जो प्रयत्न किए
हैं, उनके योगदान को बी नहीं भूलना चाहिए। असम के गोपीनाथ बरदलै, मणिपुर के ललित
माधव शर्मा, एस. नीलवीर शास्त्री, राधा गोविंद थोङाम आदि, मिजोरम में डॉ. जेनी, त्रिपुरा
के रमेश पाल, आदि को हिंदी के प्रारंभिक प्रचार-प्रसार का श्रेय जाता है। यहाँ से
चयोलपाउ, यूमसकैशा, सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय, प्रात: खबर, चाणक्य वार्ता, समन्वय पूर्वोत्तर जैसी
पत्र-पत्रिकाएँ निकलती ही नहीं बल्कि इनके पाठकों की संख्या भी बडी तादाद में हैं।
मणिपुर हिंदी परिषद, मणिपुर
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, नागालैण्ड
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,‘मिज़ोरम हिंदी प्रचार सभा,आइजोल, केंद्रीय हिंदी संस्थान केंद्र गुवाहाटी, शिलांग, पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी तथाइन राज्यों में स्थित महाविद्यालय एवं विश्विद्यालय जैसी
संस्थाएँ अनवरत हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहर्निश कार्यरत हैं। इतना होने के
बावजूद भी हिंदी साहित्य में पूर्वोत्तर भारत की अनुगूँज यथेष्ट मात्रा में प्रतिध्वनित
नहीं हो रही है, यह दुखद बात है।
पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का दायित्व
पूर्वोत्तर भारत केंद्रित जनजीवन को
अभिव्यक्त करने वाले साहित्य के समुचित विकास के बिना समग्र हिंदी साहित्य पूर्ण
नहीं माना जा सकता। यहाँ की मिट्टी ने कर्मठ और एक-एक बलिदानी सपूतों को जन्म दिया
है। इसकी मिट्टी का हरेक कण शहीदों के रक्त से रंजित है। उनकी शौर्य गाथा का
समुचित सम्मान करते हुए उनको हिंदी वाङमय की दुनिया में स्थान दिलाने का महत कार्य
पूर्वोत्तर में सक्रिय हिंदी के साहित्यकारों का कर्मक्षेत्र बनना चाहिए। सूदूर मणिपुर
में स्थित लोकताक झील के सौंदर्य की आभा का प्रतिबिंब हिंदी साहित्य के दर्पण में
प्रतिबिंबित करने का बीड़ा इन हिंदी साहित्यकारों को उठाना होगा। खाङ्खुई
की रहस्यमयी गूफा, कौब्रू पहाड़ का सौंदर्य, यहाँ के पहाड़ों में नित कर्मठता का संदेश देती हुई, मुँह
अंधेरे बागानों में जाकर सब्जी-फल तोड़कर उन्हें टोकरी में भरकर बेचने के लिए
मीलों पैदल तय करके जीविकोपार्जन करने वाली नागा महिलाएँ, बड़े-बड़े बाजारों का
संचालन करने वाली मणिपुरी महिलाएँ, पारंपरिक खेल, पहाड़ों में श्वेत क्रांति लाने
वाली गोर्खा जाति की इमान्दारी की गाथा को वाणी देने का कार्य पूर्वोत्तर में
सक्रिय हिंदी रचनाकारों का दायित्व है।
प्याज के परतों के समान पर्वत मालाओं की हार पहने नागालैंड का प्राकृतिक
सौंदर्य, एक जाति होते
हुए भी हरेक गाँव में अलग-अलग भाषा बोलने वाली यहाँ की नागा जाति, उनकी लोक कथाएँ,
लोक गीत, लोक गाथाएँ, उनका रहन-सहन, उनकी संस्कृति, उनकी राष्ट्रीयता के भाव को
वाणी देने का कार्य कौन करेगा? नागा जाति या हिंदी के रचनाकार?
मेघालय की विविध
जनजातियाँ हिंदी साहित्य का विषयवस्तु बनने की माँग कर रही हैं। यहाँ की मूल
निवासी खासी जाति की मातृ-सत्तमात्मक सामाजिक ढाँचे से शायद ही शेष भारत परिचित
हो। हिंदी साहित्य में पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के बारे में पढ़-पढकर ऊबे हुए
पाठकों की मानस के भूख की तृप्ति के लिए एक अनूठा खुराक अवश्य प्राप्त होगा। इस
समाज में पुरुष नारी को नहीं बल्कि नारी पुरुष को विवाह करके अपने घर लाती है और
उनसे पैदा हुई संतानों को माँ की पहचान मिलती है। भारत के इस प्रांत की इस अनूठी
सामाजिक व्यवस्था को वाणी देने की जरूरत है। जो भारतीय समाज पितृ-सत्ता को महत्व
देता है, नारी को सिर्फ बच्चा जनने का साधन मानता है, समाज में पुरुषों से हेय
मानता है, नारी के मानवाधिकार कुचलने पर अपनी शान समझता है, वह भी तो जान लें कि
खासी जनजाति भारत की ही हिस्सा है। इस जाति की सामाजिक व्यवस्था शेष भारत को नारी
सम्मान का पाठ सिखाने का साधन बन सकती है। माओसिनरम, चेरापूंजी जैसे
स्थलों का प्राकृतिक सौंदर्य, लोक साहित्य आदि को हिंदी साहित्य में स्थान देने का
काम हिंदी रचनाकारों का काम है।
अरूणाचल प्रदेश की विभिन्न जनजातियाँ जैसे आदी, कमान, मिश्मी, त्साङ-डाव
ली, देओरी, निशि, बुगुन, वाङचो आदि के जनजीवन, रहन-सहन, परंपराएँ,
सामाजिक ढाँचा, नारी की स्थिति, बड़े-बड़े ब्रांडेड विदेशी उद्योगों के दाँत खट्टे
करने का दम रखने वाला अरूणाचल का बाँस उद्योग, जीवनादर्श मूल भारतीय सामाजिक ढाँचे
बिल्कुल जुदा है। इसे अभिव्यक्ति देकर हिंदी के व्यापक मंच पर प्रतिष्ठित करने का दायित्व
पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का है।
उच्च
सामाजिक जीवनाआदर्श से परिपूर्ण असमीया समाज, लिंगभेद की कुरीति से परे है। यहाँ नारी
पुरुष दोनों को समान आदर भाव मिलता है। जातिगत भेदभाव, छुआछूत जैसे सामाजिक कैंसर
से परे इस समाज के उच्चादर्श, लोक संस्कृति, परंपराएँ, लघुउद्योग, महाबाहु
ब्रहमपुत्र की गाथाएँ, सिद्धपीठ कामाख्या, तेजपुर की गाथा, मातृभूमि की सूरक्षा के
लिए अपना लहू बहाने वाले और भारतीय इतिहास के द्वारा न पहचाने गए वीर सपूत, लाचित
बरफूकन का शौर्य, रानी जयमती की वीरता की कहानी, अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य, इस
राज्य में जीवन यापन करने वाली विभिन्न जनजातियाँ जैसे बोडो, मिशिङ, गोर्खा, राभा,
कार्बी, आदि हिंदी लेखकों के कलम के विषय बनने की माँग करते हैं।
शांति और
प्रगति का पाठ का आइना दिखाता सिक्किम भारत का ही हिस्सा है जहाँ की हर जनता सभ्यता
का मंत्र प्रचार करती है। कंचनजंघा का सौंदर्य और धीरजता यहाँ के जनमन में
परिलक्षित होती है। तिस्ता–रंगीत की कलकल ध्वनि, विभिन्न चिड़ियों की तानों से
गूँजते हरे-भरे वनजंगल, नाथुला दर्रा, चारधाम की अद्भुत कारीगरी, छांगु के अदभुत
सौंदर्य को अभिव्यक्ति देकर राष्ट्र की मुख्य धारा में सामिल करना हमारा दायित्व
बनता है। अर्गेनिक कृषि, कर्मठ जीवन, पहाड़ों पर गूँजते लोक धुन हमारी लेखनी का
कथ्य बनने की माँग करते हैं।
संपूर्ण
पूर्वोत्तर में जीवन यापन करने वाली शांतिप्रिय गोर्खा जाति, उनकी कर्मठता,
इमान्दारी, वीरता का चित्रांकन, निरंजन सिंह छेत्री, विष्णुलाल उपाध्याय जैसे
स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथा हमारी लेखनी के विषय बनने चाहिए। आज का भारतीय
समाज नारी सम्मान, नारी विमर्ष, नारी चेतना के स्वर पश्चिम जगत से अनुभव करता है। उनके
देखादेखि साहित्य का निर्माण करने का प्रयास करता हैं। लंबे समय तक भारतीय साहित्य
में नारीवाद लेखन की कवायद चली है। ऐसे रचनाकारों को गोर्खा जाति की सामाजिक
व्यवस्था झाँककर देखनी चाहिए जहाँ बेटी का जन्म बोझ नहीं बल्कि लक्ष्मी माता का
पदार्पण माना जाता है। इस समाज मे माता-पिता भी बेटी के पाँव छूते हैं। कुछ लोगों
के लिए यह हास्यादपद जरूर लगेगा पर गौर फरमाएँगे तो बात स्पष्ट होगी कि वास्तव में
नारी सम्मान का इससे बढ्कर दूसरा और क्या हो सकता है।
भारत मे
सिर्फ मिजोरम एक ऐसा प्रदेश है जहाँ रामराज्य केवल एक परिकल्पना भर न होकर साक्षात
अनुभव करने की वस्तु के रूप में दिखाई देती है। यहाँ की दुकानदार रहित दुकानें
(नघालॉह डॉर) किसको अद्भूत नहीं लगेंगे? इन दुकानों में कोई दुकानदार नहीं बैठता। ये
विकसित देशों की आधुनिक तकनिकी युक्त भी नहीं हैं। एक कागज में सामन का दाम लिखकर
रख दिया जाता है। खरीद्दार सामान लेता है और आवश्यक मूल्य निर्दिष्ट टोकरी या
बक्से में डाल देता है। यह व्यवस्था आपको रामराज्य के लिए तुलसीकृत मानस की ओर
नहीं बल्कि मिजोरम राज्य आपको हक़ीकत की दुनिया का दर्शन कराता है। यहाँ दुकानें
विश्वास के दम पर चलती है। आत्म निर्भरता की ओर तेजी से कदम बढाती मिजो नारियाँ.
तेजी से बढ़ता साक्षरता अभियान, वन्य संपदा से युक्त मामित, भारत का
अमेजन कहा जाने वाला मुर्लेङ राष्ट्रीय उद्यान, वानतवाङ जल प्रपात,
आकाश से बातें करती फवानपुइ चोटी हिंदी के रचनाकारों का विषयवस्तु बनने की
माँग करती हैं।
त्रिपुरा के
हरे-भरे रबर के जंगल, विभिन्न जातियाँ, अस्तित्व का खतरा सामना कर रहीं यहाँ की
स्थानीय भाषाएँ, प्राकृतिक सौंदर्य, हरे-भरे जंगलों की खामोशी को चिरती हुई
गूंजायमान होने वाली लोकधुनें, वन्य संपदा से भरे जंगल, इतिहास के वीर-वीरांगनाएँ
आदि को अभिव्यक्ति देश की राजधानी की शान बढ़ाने वाले रचनाकार नहीं बल्कि,
पूर्वोत्तर भारत के हिंदी रचनाकारों का दायित्व है।
भारत
का पूर्वोत्तर राज्य अपनी विविधताओं से भरा है। यहाँ रहने वाली विविध जातियों की
संस्कृति, परंपराएँ रहन सहन, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक संपदा को अभिव्यक्ति देने
का महत कार्य हिंदी कलमकारों को करना है। अधिकतर मंगोलियाई मूल के लोग होने के
कारण भारत के अन्य हिस्सों के लोगों को यहाँ के लोग चीनी जैसे लगते हैं। यदा कदा
ऐसी कई घटनाएँ सामने आती रहीं हैं, यह दुखद बात है। इस क्षेत्रीयतावाद, अलगाववाद
आदि की खाई को पाटने का काम हमारी कलम ही कर सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
आइए हम संकल्प लें कि हम पूर्वोत्तर की कण-कण का परिचय भारत व्यापक मंच पर रखें
ताकि देश की हर जनता कोई किसी तरह के अलगाव को महसूस न करे। इस भूमि में विविध
भाषाओं में रचित श्रेष्ठ सहित्य का हिंदी में अनुवाद किया जाए। तब जाकर पूरे
भारतवासी को राष्ट्र की एक माला में पिरोने का हमारा उद्देश्य पूर्ण होगा। इस हेतु
स्वयं को इस मिट्टी का हिस्सा मानते हुए दुनिया के सामने भारत की एकता, अखंडता को
वाणी देना एवं दुनिया में इसकी शान बढाने हेतु इस क्षेत्र में कदम बढ़ाना पूर्वोत्तर
के हिंदी रचनाकारों का अनिवार्य दायित्व बनता है।
डॉ.गोमा देवी शर्मा (अधिकारी) गुवाहाटी, असम की निवासी हैं और पेशे से एक शिक्षिका हैं। इन्होंने हिंदी विषय में स्नातक, स्नात्कोत्तर, बीएड एवं पीएचडी मणिपुर विश्वविद्यालय से और नेपाली में गुवाहाटी विश्वविद्यालय के आइडोल केंद्र से की है। ये मूल रूप से नेपाली, हिंदी और अंग्रेजी में लिखती हैं। ये पूर्वोत्तर भारत की एक हिंदी सेवी हैं। ये भारतीय नेपाली साहित्य की अध्येता हैं। इनकी हिंदी तथा नेपाली में कई पुस्तकें प्रकाशित हैं
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